नाथ सिद्ध योगी राज बाबा मस्तनाथ जी                                                   
योगिराज मस्तनाथ उच्चकोटि के नाथ योगी थे अतेव उन्हें नाथ सिद्ध कहना सर्वथा युक्ति संगत है   नाथ सम्प्रदाय में ही नहीं केवल मात्र योगसिधों में ही नहीं समग्र भारतीय अध्यात्मसाधना के छेत्र में वे मध्यकाल के दूसरे-तीसरे चरन की संधि अवधि के महान तपस्वी और योगपुरुष के रूप में सम्मानित हैं अपने पंचभौतिक शरीर में महाराज पूरे सौ साल तक विद्यमान थे। उनके समय में दिल्ली की राजसत्ता औरन्गजेब की धार्मिक कट्टरता सूबेदारों की स्वाधीनता बिदेशी आक्रमणों की विनाशलीला तथा यूरोपिय कंपनीयों के पारम्परिक राजनैतिक सत्ता हतियाने के षडयंत्र के परिणाम स्वरूप कमजोर होती जा रही थी नादिरसाह और अहमद्साह दुर्रानी के आक्रमण से देश का एक विशाल भाग विशेषस्वरूप से पश्चिमोत्तर प्रान्त पंजाबहरयाणा आदि प्रदेश जर्जर हो रहे थे ।

औरन्गजेब की १७०७ ई. में मृत्यु हुई ठीक उसी संवत में मस्तनाथ जी महाराज ने धर्म के संरक्षण के लिए अभिनव गोरक्ष नाथ रूप में जन्म लेकर अपने दिव्य कर्म का अच्छी तरह संपादन किया राजस्थान पंजाब और हरयाणा तथा दिल्ली और उत्तरप्रदेश के भूमि भाग उनके दिव्य जन्म कर्म से विशेष रूप से गौरवान्वित हो उठे। महाराज ने नाथयोग के प्रचार-प्रसार और गोरक्षनाथ जी के योग्सिद्धान्तों के प्रतिपादन में बड़ी महान भूमिका निभाई महाराज ने शिवाजी समर्थ रामदास तथा गुरु गोविन्द सिंह की हिंदुत्व भावना से प्रभावित असंख्य लोगों को अपने दिव्य व्यक्तित्व से जागृत और सत्पथ में अनुप्राणित किया। योगिराज चौरन्गीनाथ की योगसाधना और तपस्या की स्थली के रूप में गौरवान्वित हरयाणा का अस्थल बोहर मठ मस्तनाथ की गरिमा का सजीव भौम स्मारक है

इन्द्रप्रस्थचंडीगढ़रोहतक आदि भूमि भाग को हरयाणा प्रदेश कहा जाता है। हरयाणा के रोहतक क्षेत्र के संग्राम गाँव में एक धनि वैश्य परिवार में सिद्ध बाबा मस्तनाथ जी अवतरित हुए यह वैश्य जाती रेवारी जाती के नाम से प्रसिद्ध है। इस परिवार के सबला नाम के व्यक्ति निस्संतान थे वे बड़े श्रद्धालु और भगवद्भक्त थे एक दिन यमुना नदी तट पर अमृतकाय शिवगोरक्ष महायोगी शिवगोरक्ष नाथ जी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दियाउनकी जटासुनहले रंग की थी हाथ मैं वीणा थी दोनों कान में तेजोमय कुंडल थे। सबला ने उनसे पुत्र प्राप्ति का वरदान माँगा। गोरक्ष नाथ जी वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए। १७६४ वि. मैं शिवपूजन के अवसर पर एक वन में वट वृक्ष के निचे सबला और उसकी स्त्री को एक वर्ष के दिव्य बालक के रूप में आकारित मस्तनाथ की प्राप्ति हुई।माता- पिता ने उनका विधिपूर्वक जन्म संस्कार कियापुत्र का उनोहने धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया। मस्तनाथ की उत्पत्ति दिव्य थी अयोनिज थीनिसंदेह यह महायोगी गोरक्षनाथ के दर्शन और अनुग्रह का ही मांगलिक परिणाम-फल था।

बाबा मस्तनाथ जी की बाल लीलाएं
दस साल की अवस्था में मस्तनाथ को गृहकार्य में सहज अरुचि होने लगी और वे बालकों के साथ खेला करते थे उनकी उदासीनता को दूर करने के लिए माता-पिता ने उन्हें गोपालन में प्रवृत किया बालकों को उनके साथ वन में जाकर गाय चराने में बड़ी प्रसन्नता होती थी।धीरे-धीरे उनकी लोकोत्तर लीलालें आरम्भ हुई। वन में वे गाय चराने जाते थे बालकों के साथ खेलते थे और ठीक उसी समय गाँव में अपने साथियों के साथ क्रीडामग्न हो जाते थे। यह बात अधिक दिनों तक छिपी न रही। कभी-कभी गाय चराने के लिए उन्हें वन में भेजकर पिता उन्हें गाँव के लड़कों के साथ खेलते देखकर आश्चर्य में पड़ जाते थे। सोचते थे की मस्तनाथ का मन गाय चराने में नहीं लगता लेकिन आश्चर्य बढ़ जाता था जब ऐसी हालत में गाय वन में ही चर रही होती थीं। वे एक दिन स्वयं वन में गए तो देखा की मस्तनाथ गो पालन में लगे है और गाँव वापस आते ही उन्हें वहीं देखा तो कुछ भी समझ में नहीं आया। सबला उन्हें साक्षात् गोरक्ष नाथ जी के अनुग्रह से प्राप्त समझ कर उनके प्रति अमित पूज्यभाव रखते थे और उनके हृदय में मस्तनाथ के प्रति आदर सात्विक स्नेह बढ़ता रहता था।

वैराग तथा योगी ब्रह्मण को अपने रूप से अवगत कराना
बारह साल की अवस्था होने पर मस्तनाथ के मन पर वैराग का रंग चढ़ने लगा। वे नदी तट पर वन में और तालाबके रमणीय किनारे-किनारे विचरण कर एकांत का सेवन करते हुए आत्मचिंतन में लग गए कभी-कभी किसी गुफा में बैठ कर शांतवृति में रमण करने लगते थे। वे इच्छाचारी मिताहारी और ब्रहमचारी के रूप में जीवन यापन में प्रवृत हुए। माता पिता ने उनके पालन पोषण और देख-रेख में किसी भी तरह की कमी नहीं रखी। मस्तनाथ के घर के ही समीप एक नैष्ठिक ब्राहमन निवास करते थे जप धियान आदि में लीन होकर वे भगवन का चिंतन किया करते थे। उन्हें मस्तनाथ ने अपनी योगविभूति का दर्शन कराया। उन्होंने जटा विभूति विभूषित गले में सेली आदि शोभित उनका युवा अवधूत वेश में दर्शन किया। साथ ही साथ उन्हें मस्तनाथ के दर्शन के अतिरिक्त अनेक योगियों का भी दर्शन होने लगा। ब्रह्मण ने यह बात उनके पिता से कही पिता मस्तनाथ के दिव्यस्वरूप में निष्ठावान थे उन्होंने उनसे (मस्तनाथ से) पूछा की ब्रह्मण को दर्शन देने वाले योगी कौन हैं। पिता ने दैवी सिद्धिसमपन्न मस्तनाथ जी की महिमा का अनुभव किया ।

गुरु दीक्षा
एक दिन उनके निवास पर आइपंथ के प्रसिद्ध संत नरमाई का आगमन हुआ पिता ने उनके चरण पर मस्तनाथ को अदृश्य विधान से समर्पित कर दिया। मस्तनाथ ने कहा की मुझे श्री नाथ जी की सेवा में समर्पित कीजिये में आपके शरणागत हूँ नरमाई ने कहा की परमेश्वर का चिंतन ही परम आवश्यकतत्व है विषयासक्त न रहने पर ही वास्तविक विरक्ति का उदय होता है नरमाई ने मस्तनाथ को २४ साल की अवस्था में संवत १७८८ वि. में योग मंत्र की दीक्षा देकर शिष्य रूप में स्वीकार किया। मस्तनाथ आई पंथ में दीक्षित होकर कुंडल धारण कर साधना में प्रवृत हो गए।

आई पंथ
आई पंथ का सम्बन्ध करकाई और भुसटाई पंथ से बताया गया है दोनों गोरक्ष नाथ जी के शिष्य थे। आई पंथ में आदि शक्ति-आई (माता मराठी भाषा में आई माता को कहते हैं) की पूजा करने से अनुयाइयों को आई पंथी कहा गया है। गोरक्षनाथ जी की शिष्या विमला को इस पंथ की मूल प्रवर्तिका मन गया है। नित्यान्हिक तिलक में विमला को मत्स्येन्द्र नाथ की अनुवर्तनी कहा गया है इसलिए यह संभावना पुष्ट होती है की विमला ने गुरु गोरक्ष नाथ जी से दीक्षा प्राप्त की है। मस्तनाथ जी के गुरु नरमाई जिन्द के कोट स्थान में उत्पन्न हुए थे मस्तनाथ जी के समय से आई पंथ के योगियों ने अपने नाम के साथ नाथ लगाना आरम्भ किया। नाथ योगी मस्तनाथ इस पंथ में एक सिद्ध पुरुष के रूप में प्रख्यात हुए।

बाबा मस्तनाथ जी का अस्थल बोहर आना और विकलांगों को ठीक करना।
योगिराज मस्तनाथ ने हरयाणा प्रदेश के बोहर से सटे वन को अपना तप:स्थल चुनाजिसकी प्राकृतिक रमणीयता और नीरवता से आक्रीष्ट होकर योगिराज चौरंगी नाथ ने पधार कर तप किया था। मस्तनाथ जी ने पंचाग्नि तप के लिए धूनी प्रज्वलित की। असंख्य दर्शनार्थी उनकी योगसिद्धि और तपस्या से प्रभावित होकर उमड़ पड़े। महाराज ने इसे योग साधना मैं बाधक समझ कर उसी वनस्थली से थोडा आगे स्थान पर तप करने करने का निश्चय किया अनेक लोग उनके दर्शन से सफल मनोरथ होने लगे उनके मार्गदर्शन से लोगों को स्वस्थता शांति और निर्भय की प्राप्ति हुई तपस्या की इस अवधि में एक पंगु नारी आई। लोगों ने उसकी कुरूपता की हंसी उड़ाई।महाराज के अनुग्रह से वह नारी सुंदर आकृति में बदल गई और उसकी पंगुता नष्ट हो गई। इसी तरह बोहर ग्राम के ही निर्भय शर्मा के पुत्र नाथूराम शर्मा को महाराज के दर्शन के लिए उपस्तिथ होने पर नेत्र ज्योति मिल गई। वह दिव्य दृष्टी से सम्पन्न हो उठा। अनेक विकलांग और अंगहीनो विकलांगता ठीक हो गई उनके अंग प्रत्यंग ठीक हो गए।

शिष्यों को पूर्व की घटना सुनना
योगिराज मस्तनाथ साक्षात तीर्थस्वरूप थे वे आत्मतीर्थ थे।यद्यपि उनके लिए तीर्थ भ्रमन की आवश्यकता न थी तथापि तीर्थों मैं उनकी उपस्तिथि से लोग अपने आपको मन वचन और शरीर से शुद्ध अनुभव करते थे उन्होंने एक वन की गुफा में तप के लिए प्रवेश किया। एक दिन जोर से अट्टहास किया शिष्यों ने कारण पुछा तो कहा की निकटस्थ गाँव में एक कर्कशा स्त्री रहती है। वे शिष्यों के साथ भिक्षाटन के लिए आये। वह स्त्री वस्त्र प्रक्षालन के लिए एक वर्तन में पानी गर्म कर रही थी उन्होंने उस कुम्हार की स्त्री से भिक्षा में एक घड़ा और स्थाली की याचना की उसने महाराज के सामने वर्तन को गर्म जल सहित भेज दिया। उनके शाप से शाप से पूरे का पूरा गाँव नष्ट हो गया।

शीलका को चमत्कार दिखाना
मस्तनाथ की तपस्या और जीवनवृत्ति योग के अमृत से रसमयी है। एक दिन महाराज मस्तनाथ सिद्धासन लगाकर वन मैं एक वृक्ष के निचे ताप में लीन थे की भालो ग्राम का शीलका नामक व्यक्ति उनकी सेवा में दूध ले आया और नित्य दूध लाकर बाबा की सेवा में लगा रहता था। महाराज ने उसे जंगली जानवरों से सावधान कर वन में आने से रोकना चाहा तो उसने कहा की मुझे चोरादी से तथा जंगली जन्वेरों से भय नहीं लगता। एक दिन महाराज ने उसके वस्त्र चोर के रूप में प्रकट होकर छीन लिए और उसका रूप बनाकर रात ही में उसकी माँ को वे वस्त्र वापस कर लौट आये। सवेरे शीलका ने घर पहुँच कर देखा की सारे वस्त्र घर पर हैं। माँ ने कहा की तुम्ही ने वस्त्र वापस किया है।सभी लोग महाराज की योग सिद्धी से चकित हो गए।

एक दिन आधी रात में पेड़ पर बैठ कर शीलका ने देखना चाहा की महाराज इस समय कहाँ जाकर अद्रिस्य हो जाते है उसने देखा की महाराज सिद्ध गन्धर्वों और योग सिद्धों के बीच में स्थित हैं और सभी लोग उनकी आरते कर रहे हैं। इस दृश्य को देखकर वह आश्चर्य में पड़ गया उसने महाराज से योगदिक्षा ली उसके पुत्र ने भी शिष्यत्व ग्रहण किया और पत्नी योगिनी हो गई शीलका को महाराज ने शील्कानाथ नाम प्रदान किया।

बाबा मस्तनाथ द्वारा योगराज को भर्तरिहरी और गोपीचंद का दर्शन कराना
उस वन से मस्तनाथ ने एक अत्यंत निर्जन वन मैं प्रवेश किया।यह वन खोखरा कोट के नाम से प्रसिद्ध है तथा अस्थल बोहर के वन का ही एक भाग है। इस पर उनके प्रिये शिष्य योगराज ने कहा की आप सब कुछ करने मैं समर्थ हैं। सिद्धियों के स्वामी हैं। मृत को जीवित करने वाले हैं और विरक्त को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। मेरी इच्छा है की मैं कालदंड का खंडन कर सिद्ध देह में विचरण करने वाले अमरकाय भर्तरिहरी और गोपीचंद का प्रत्यक्ष दर्शन करू। मस्तनाथ ने कहा की यद्यपि आत्मा अमर है तथा अपि योग्सिधान्त में आत्मा के साथ शारीर अमर हो जाता है भर्तरिहरी और गोपीचंद दोनों अमर हैं। मस्तनाथ जी के अनुग्रह से दुसरे दिन सवेरे योगराज को भर्तरिहरी और गोपीचंद का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ।

बाबा मस्तनाथ जी द्वारा सूखे वृक्ष को हरा करना और जाट को पुत्र प्राप्ति होना
मस्तनाथ जी ने पटियाला राज्य के उचाना ग्राम मैन्कुच समय तक निवास कर लोगों को योगोपदेश दिया सिद्धों की महिमा और योगसाधना प्रक्रिया से परिचित कराया। रोहतक मंडल में महम ग्राम के निकट घडी बढ़ी ग्राम में एक सूखे प्राचीन वट वृक्ष के निचे आसन लगाया।एक वृद्ध जाट धर्मात्मा पुरुष संतानहीनता से वह बहुत दुखी था उसकी स्त्री भी शरीर से जर्जर हो चली थी लोगों ने कहा की यदि यह सुखा वट वृक्ष हरा हो जाये तो जाट भी पुत्र की प्राप्ति कर सकता है महाराज के आदेश से शिष्यों ने वृक्ष के मूल मैं पानी डाला और वह हरा हो गया जाट ने उनके अनुग्रह से तीन वर्षों मैं तीन पुत्रों की प्राप्ति की।

पाई देवी को शाप देना
महाराज रोहतक मंडल के ही भालोट ग्राम से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित कलोई ग्राम मैं पहुँच गए। वहां कुईं पर पानी लेने आई हुई एक सुंदर नवजवान स्त्री ने अपनी सखिओं के साथ मिलकर मस्तनाथ जी के योगी वेश पर हास्यात्मक व्यंग किया वह हरिसिंह नामक व्यक्ति की पत्नी थी महाराज ने उसे शाप दिया की तू योगिनी होगी। उस स्थान को नीरस समझ कर महाराज ने निर्जन जीव जंतु के प्रवेश से अगम खोखर जंगल मैं निवास किया। घर जाने पर हरिसिंह की स्त्री पाई भूतावेश से ग्रस्त हो गई वह विकृति को प्राप्त हुई। उसके मन में वैराग का उदय हो गया वह अपने पति पुत्र आदि से सम्बन्ध विच्छेद कर तथा शरीर को भस्म विभूषित कर शिवगोरक्ष मन्त्र को स्मरण करती हुई उसने वन में प्रवेश किया। जब हरिसिंह को पता चला की यह मस्तनाथ के कोप का परिणाम है तो धनुष बाण लेकर उन्हें मारने चल पड़ा। महाराज आसन पर विराजमान थे अद्रिस्य हो गए कभी दीख पड़ते कभी अद्रिस्य हो जाते। हरिसिंह ने महाराज से क्षमा मांगी मस्तनाथ जी ने उसकी स्त्री को योगदीक्षा दी और यह पाई नाथ के नाम से महातपस्विनी योगिनी के रूप में प्रसिद्ध हो गई।

बाबा मस्तनाथ का मृग रूप धारण करना
खोखरा जंगल मैं ही योगिराज मस्तनाथ जी की कृपा से एक गोपालक की प्रार्थना से मृत गाय के शरीर मैं फिर से प्राण संचार हो गया। इसी प्रकार एक समय महाराज ने रोहतक के झज्जर ग्राम मैं आसन लगाया। महाराज की चरण धूलि से वह ग्राम पवित्र हो गया एक दिन वे छायादार वृक्ष के निचे विराजमान थे की एक सामंत आखेट के लिए उस वनस्थली मैं आया। महाराज ने मृग रूप धारण कर लिया। उसने महाराज पर बाण चलाया और मृग के स्थान पर उसने वट वृक्ष के निचे जटाजूट विभूषित योगी को देखा। महाराज के चरणों पर गिरकर उसने क्षमा मांगी महाराज ने उसे आत्मज्ञान से संबोधित किया।

बादशाह आलम को चमत्कार दिखाना
योगिराज मस्तनाथ ने अपनी चरणधूलि से दिल्ली को भी पवित्र किया था। बादशाह औरन्ग्जेब की धार्मिक कट्टरता से हिंदुत्व को भी आघात लगा था। उन दिनों दिल्ली के सिंघासन पर बादशाह आलम विराजमान था महाराज के दिल्ली पधारने से हिन्दुओं को बहुत आश्वासन मिला और महाराज ने उन्हें अभय दान दिया महाराज ने दिल्ली में पच कूईयां (पंच्कूपी) के समीप एक उद्यान मैं आसन लगाया शाह आलम उनका दर्शन करना चाहता था उसने महाराज के चरण-देश मैं शाल आदि बहुमूल्य पदार्थ उपहार मैं भेजे। महाराज ने कौतुक मैं ही उनको आग की धूनी मैं डाल दिया  बादशाह ने मंत्री भेजकर कहलवाया की जो वस्तुएं भेजी थीं वे आपके उपयोग मैं नहीं आयंगी उन्हें लौटा दें बदले में दूसरी वस्तु भेज रहा हूँ। महाराज ने धूनी में जले पदार्थ ज्यों के त्यों नवीन रूप में निकाल कर वापस कर दिए लोग उनकी योगसिद्धि से चकित हो गए। उन दिनों दिल्ली की स्थिति शोचनीय थी। गुलाम कादिर रूहेला ने शाह आलम को अँधा कर कैद में डाल दिया। १७८८ ई. में इस तरह दिल्ली असहाय हो गई। महाराज ने दिल्ली से प्रस्थान कर दिया।

पचोपा गाँव को शाप से नष्ट करना
दिल्ली से योगिराज पचोपा ग्राम आये। उस गाँव मैं देविदास नाम का एक व्यक्ति अपने तंत्र-मंत्रात्मक प्रयोग के लिए प्रसिद्ध था। उसने कहा की ऐसे अनेक योगी घुमते है इनमे सिद्धि नाममात्र को नहीं होती है उसने योगिराज की निंदा की महाराज मौन थे उन्होंने श्रद्धालुओं से सामान लेकर गाँव से बाहर जाने का आदेश दिया और कहा की यह गाँव आग लगने से शीघ्र ही जल उठेगा सिद्ध की वाणी थी। तत्काल सारा गाँव आग में प्रज्ज्वलित हो उठा।

कडाहे में काठ का टुकड़ा डलवाना और उसका स्वर्ण में बदलना
एक समय भ्रमण करते हुए योगिराज मस्तनाथ बीकानेर गए। उन दिनों महाराज गजसिंह के पुत्र सूरतसिंह बीकानेर के सिंघासन पर विराजमान थे। महाराज एक यज कर रहे थे उसमें दूर दूर के संत महात्मा साधू संत और विद्वान पधार रहे थे। यज्ञ के परिसर से ही महाराज मस्तनाथ अपने शिष्य रूप नाथ के साथ जा रहे थे की उन्होंने दूध से भरा कड़ाहा देखा उसमें उन्होंने विभूति और काठ का टुकड़ा प्रदान कर रूपनाथ को आदेश दिया की कड़ाहा में डाल दो। इससे यज्ञ क्षेत्र मैं बड़ा कोलाहल हुआ।

मस्तनाथ जी ने वन में आकर आसन लगाया राजा इस वृतांत से कुपित हुए और सिद्ध मस्तनाथ को लाने के लिए दूत भेजा। दूत ने कभी मस्तनाथ को देखा और कभी उनके स्थान पर सिंह देखा। राजा ने यह वृतांत जान कर उन्हें आदर पूर्वक राजमहल में बुलाया। उन्होंने महाराज से कडाह में विभूति और काठ का टुकड़ा डलवाने का कारन पूंछा तो योगिराज ने कहा की आप ब्राह्मणों को पायस का भोजन करा रहे थे तो दक्षिणा मैंने देना उचित समझा। कडाह मंगवाया तो उसमें स्वर्ण भरा हुआ था। राजा सूरत सिंह ने महाराज से नाथ योग की दीक्षा ग्रहण की और सेवा में एक ग्राम देना चाहा पर महाराज ने अस्वीकार कर दिया। उनके शिष्य तोतानाथ प्रसिद्ध हुए और सूरत सिंह ने सेवा में एक ग्राम थेडी नामक प्रदान कर बोहर मठ के अधिकार में कर दिया।

रूप नाथ की स्त्री को स्वर्ण से भरा मतीरा देना
रूपनाथ की विवाहिता स्त्री जो उनके शिष्य होने के पहिले विवाहिता थी महाराज का दर्शन करने आई जीविका के लिए महाराज ने मतिरा दिया जो बहुमूल्य मोतियों से परिपूर्ण था। महाराज ने उसकी चिंता नष्ट कर दी।

बाबा मस्तनाथ जी द्वारा राजा मानसिंह को राजा बनाना
महायोगी जलंधरनाथ के कृपापात्र जोधपुर के महाराज मानसिंह को राज्य अधिकारी बनाने में उनके समकालीन योगिराज मस्तनाथ का ही विशेष योगदान था क्यूंकि जालान्धरनाथ के प्रति महाराज के हृदय में श्रद्धा रही होगी लेकिन विशेष रूप से नाथयोगी और नाथ सम्प्रदाय के प्रति उनमें श्रद्धा निष्ठा की जाग्रति मस्तनाथ जी के अनुग्रह के रूप मैं ही स्वीकृत है। मानसिंह के भाई भीम सिंह बहुत कठोर हृदय के थे। उन्होंने मानसिंह को जालोर दुर्ग मैं बंदी बनाकर जोधपुर के राज्य पर अधिकार कर लिया था।

मस्तनाथ ने जोधपुर पहुँच कर एकांत मैं आसन लगाया। मानसिंह के दूत के रूप में एक कुंडलधारी दर्शनी योगी ने भीमसिंह को सूचित किया की मानसिंह की रक्षा करने के लिए एक सम्रर्थ योगी आ गए हैं। वे सिद्ध हैं मृतक को जीवन दान देने वाले हैं साथ ही साथ महाराज ने योगबल से भीमसिंह के किसी मुख्य सैनिक को मानसिंह के पास भेजा की भीमसिंह सात दिनों के भीतर राज्य पर अधिकार कर लेंगे आप खजाना सुरक्षित कर राज्य के बहार निकल जाएये। मानसिंह चिंतित हो उठे। उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी की आप तीसरे दिन जोधपुर के राजा बन जायेंगे। मानसिंह ने कहा की यह कहने वाले आप कौन हैं जालंधर नाथ हैं मत्स्येंदर नाथ हैं या गोरक्षनाथ हैं हमें दर्शन दीजीये। आप मस्तनाथ तो नहीं हैं मस्तनाथ प्रकट हो गए महाराज ने कहा की इस कोट मैं एक कूप है उसका जल पीजीए एक अन्न का भंडार है सारी सेना की इसी से तृप्ति हो जाएगी।

मस्तनाथ अंतर्ध्यान हो गए। उसके बाद मस्तनाथ ने मंदिर मैं प्रकट होकर जलंधरनाथ के पूजक देवनाथ से कहा की भीम सिंह स्वयं मृत हो जायेगा मानसिंह से कहना चाहिए भीमसिंह के मरने पर मानसिंह मस्तनाथ जी के अनुग्रह पर जोधपुर के राजसिंघासन पर आसीन हो गए। सम्पूर्ण राज्य की मानसिंह ने श्रीनाथ जी की धरोहर के रूप मैं स्वीकार किया और मस्तनाथ जी को आदर पूर्वक राजमहल मैं पधारवा कर उनसे धर्म और योगतत्त्व का उपदेश प्राप्त किया। मानसिंह नाथ योग के अद्भुत मर्मज्ञ थे। उनकी श्रीनाथतीर्थावाली रचना विशेष रूप से नाथ सम्प्रदाय मैं सम्मानित है। विवेकमार्तनड के टीकाकार तथा उन्ही के समकालीन और कृपापात्र भीष्म भट्ट ने मानसिंह को सिद्धसिद्धांतत्तत्वज्ञ और श्रीनाथपदामभोजमधुप कह कर सम्मानित किया है। जोधपुर राज पुस्तकालय के एक भाग के रूप में नाथ सम्प्रदाय परक अगणित पुस्तकों का भंडार महाराज मानसिंह की देन है।

बाबा मस्तनाथ जी के शिष्य और उनको दिया उपदेश
सिद्ध शिरोमणि बाबा मस्तनाथ जी की शिष्य परम्परा बड़ी समृद्ध है। उनके शिष्य घडी नाथ धाता और रनपत तथा तोता नाथ आदि के नाम विशेष सम्मानित हैं। तोता नाथ भरतपुर क्षेत्र के पिगोरा ग्राम के रहने वाले थे महाराज का उन पर विशेष अनुग्रह था। बीकानेर राज्य से प्राप्त थेडी ग्राम महाराज ने तोतानाथ को देखभाल के लिए सोंपा था। मस्तनाथ जी ने शिष्यों को उपदेश दिया की आत्मतत्व का ज्ञान प्राप्त करना ही योगसाधना का फल है। व्यव्हार-मार्ग का त्याग नहि कारना चाहिए। सदाचार परक व्यव्हार की सिद्धि में ही परमार्थ सन्निहित है। उन्होंने कहा की आत्मतत्व साकारस्वरूप मायावश सातिशय होता है । वास्तव मैं वह निरतिशय निर्गुण है।

बाबा मस्तनाथ जी का महाप्रस्थान
एक समय बाबा मस्तनाथ जी महाराज बीघडान गाँव में विराजमान थे। उन्होंने बात ही बात में शिष्य मंडली से अपने महाप्रस्थान की बात बताई की फाल्गुन शुक्ल पक्ष में यह यात्री स्वधाम चला गायेगा। महाराज शिष्यों को उपदेश दे रहे थे की वार्ता के मध्य में अमरकाया सिद्ध योगिराज चौरंगी नाथ ने आकर भेंट की परस्पर में बातचीत कर अंतर्ध्यान हो गए। योगिराज मस्तनाथ ने पूरे सौ साल की अवस्था में संवत १८६४ वि. की फाल्गुन शुक्ल नौमी को निर्वाण प्राप्त किया।

महाराज ने दिव्या देह से प्रकट हो कर आकाश से कहा में जीवीत हूँ मृत नहीं हूँ। स्थूल देह मात्र से ही मेरा सम्बन्ध विच्छेद हुआ है । अत्यंत सादे ढंग से जमीन में गुफा बनाकर उसमें मेरे शरीर को समाधी दी जायउनके आदेश से शरीर को बीघडान गाँव से अस्थल बोहर लाया गया और चौरंगी नाथ जीकी स्थली में ही उन्हें समाधी दी गई। उनके शिष्य तोता नाथ जी ने सिद्ध शिरोमणि बाबा मस्तनाथ जी के समाधी स्थल पर एक मंदिर का निर्माण कराया। मस्तनाथ जी के समाधी स्थल पर फाल्गुन शुक्ल नौमी को प्रत्येक वर्ष मेला लगता है। अस्थल बोहर का कण कण उनकी योगसिद्धि का परिचायक है। योगिराज मस्तनाथ अमर हैं उनकी पवित्र कीर्ति अमर है।
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